सोचती हूँ कि आज आज़ाद हूँ मैं,
लेकिन फिर भी डर-डर कर आगे बढ़ पाती हूँ मैं.
खौफ में घर से बाहर निकलना,
बस यूँ ही सहमी हुई सी रह पाती हूँ मैं.
कहने को तो मैं भी अब आज़ाद हूँ लेकिन,
न जाने क्यूँ, आज भी, रौशनी में,
अपनी ही परछाई से डर जाती हूँ मैं.
काली भयावह रातों में भी अब मुझे,
बस यही डर सताता है कि,
क्या होगा कल फिर से इसी गरीबी में,
बस यही सोचकर रात भर आँखों से नीर बहाती हूँ मैं,
हर पल साहूकारों की मार और फटकार से,
अखियों को जलमग्न कर जाती हूँ मैं,
कहने को तो इस देश में आज़ाद हूँ मैं भी,
न जाने क्यूँ, आज भी, रौशनी में,
अपनी ही परछाई से डर जाती हूँ मैं.
स्कूल जाते, पानी भरने या काम पर जाते,
यही ख्याल आता है अब तो,
क्या ले जायेगा मुझे भी उठाकर बीच रास्ते से कोई,
डर कर फिर धीरे-धीरे चल पाती हूँ मैं,
डर कर भी जल्दी से आगे बढ़ना चाहा,
लेकिन फिर भी बढ़ नहीं पाती हूँ मैं,
सहेलियां कहती है कि आज़ाद हैं हम भी,
लेकिन न जाने क्यूँ, आज भी, रौशनी में,
अपनी ही परछाई से डर जाती हूँ मैं.
ब्लात्कार और दरिन्दगी की हदें,
ख़बरों में रोज़ पढ़ लेती हूँ मैं,
कहाँ से आये फिर उम्मीद की किरण,
इसी बात को फिर दिल में दबा लेती हूँ मैं,
बेटी, बहन, पत्नी और माँ,
सब रिश्तों को निभाती हूँ मैं,
अपने मन कि उलझन को फिर भी,
किसी को न कह पाती हूँ मैं,
अम्मू कहती है कि आज़ाद है हम,
लेकिन न जाने क्यूँ, आज भी, रौशनी में,
अपनी ही परछाई से डर जाती हूँ मैं.
(गोविन्द सलोता)