{ May God Bles You All}

Saturday, July 27, 2013

ये काली रात कह्ती है मुझसे

^^^ हर रोज ये काली रात कह्ती है मुझसे  के अब बंद कर ले इन आंखों को इस उम्मीद में,
कि  सुबह फिर निकलना है एक बार बाजार में खुद को बेचने के लिये...^^^


                                                                                  गोविन्द सलोता

Monday, April 4, 2011

कुछ सुलझे कुछ अनसुलझे तथ्य:

भगवान, भगवान नहीं! 
एक इंसान हैं जो महान हैं.

शक्ति, शक्ति नहीं!
भक्ति है जो अपार है.

जिंदगी, जिंदगी नहीं!
एक सफ़र है,
जिसका कोई हमसफ़र नहीं.

आत्मा, आत्मा नहीं!
एक अंश है परमात्मा का,
जो अमर है.
दुनिया और कुछ नहीं है!
बस हुजूम है लोगों का,
जो इक दिन शायद ख़त्म हो जाए.

प्रेम, प्रेम नहीं बल्कि एक आनंद है!
अगर इस आनंद को पाना है तो,
तुम्हें खुदा की बनाई हर एक चीज़ से प्रेम करना होगा.

सत्य, सत्य नहीं है!
एक आनंदमय कष्ट है, 
जो बहुत बार कड़वाहट दे जाता है.

झूठ वो मीठा ज़हर है!
जो हमेशा बाद में असर करता है.


दोस्ती, सिर्फ दोस्ती ही नहीं!
ईश्वर का दिया नायब तोहफा है,
जिसमें स्वयं भगवान वास करते हैं.

सुन्दरता एक ऐसी बनावटी रचना है!
जो हमेशा साथ नहीं रहती.

प्यार, केवल प्यार नहीं जीवन का आधार है!
जिसके विद्यमान होने से ही दुनिया बसी है.

                                                                    (गोविन्द सलोता)
 

Wednesday, February 2, 2011

शराफत, डर और बुस्दिली...........

  • शराफत, डर और बुस्दिली ये तीनों ही वो चीजें हैं जिन्हें हम न तो छू सकते है और न ही देख सकते है लेकिन महसूस जरुर कर सकते हैं, इनसे गुजर जरूर सकते है. इन तीनों को एक साथ एक ही श्रेणी में इसलिए रखा गया है क्यूंकि ज्यादा शराफत हमेशा इन्सान के मन में डर पैदा करती है और डर बुस्दिली को जन्म देता है. शराफत के चक्कर में सह्रीफ इन्सान को न जाने किन किन भयानक दौरों से गुजरना पड़ता है. कई बार उसे न जाने कितनी बातों को अपने मन में दबाना पड़ता है. वो हमेशा शराफत के चक्कर में किसी का भला करने की सोचता है लेकिन जिसके बारे में वो सोचता है वास्तव में वही उसको चोट पहुंचा जाता है.

  • इन सब बातों से मेरा मतलब ये नहीं है कि शराफत का होना बुरी बात है या कोई जुर्म है लेकिन इन्सान को शराफत को अपने जीवन में केवल उतनी ही जगह देनी चाहिए कि वो कभी आप पर या आपके अपनों पर हावी न हो. न ही उस शराफत को अपने अन्दर इतना डूबने दो कि कोई काम करते वक़्त आपको कई बार सोचना पड़े. ऐसी शराफत भी फिर भला किस काम कि जो इन्सान को बुस्दिल बनाने में कोई कसार न छोड़े. अक्सर देखने को मिल जाता है कि अगर किसी शरीफ आदमी के सामने कोई बुरा काम या किसी पर अत्याचार भी हो रहा हो तो वह बापू जी के बन्दर के तरह अपनी आँखें और अपने कानों को बंद कर लेता है क्यूंकि उसके मन में यही बात आती है कि वो व्यर्थ में झंझट में क्यूँ पड़े तो क्या इस बात से उस शरीफ आदमी का डर और बुस्दिली नहीं झलकती.

  • कई बुस्दिली के ऐसे किस्से हमें रोजमर्रा की जिन्दगी में हर दिन देखने को मिल जाते है. सड़क पर कुछ लोग शरेआम किसी बेबस को पीटकर, मारकर या किडनेप करके चले जाते हैं लेकिन किसी कि इतनी हिम्मत नहीं होती कि उस बेबस की मदद करे. दिन दिहाड़े कई मनचले लोग लड़कियों और महिलाओं का न जाने कितनी बार पीछा करते है और उन पर कितनी अश्लील फब्तियां कसते हैं, छेड़छाड़ करते हैं लेकिन क्या कभी किसी की इतनी हिम्मत हुई कि वो उनकी धुनाई कर दें लेकिन सारी गल्ती उनं लोगों की भी नहीं होता क्यूंकि इसमें कुछ डर और बुस्दिली उन लड़कियों और महिलाओं की भी होती है जो उनकी अश्लील फब्तियों को चुपचाप सहन कर जाती है., इस डर से कि शायद उसके बोलने से लोग क्या समझेंगे लेकिन क्या वो इस बात को नहीं जानती कि उनके उस बात को चुपचाप सहन कर जाने को लोग किस श्रेणी में डाल जाते हैं.

  • ऐसे बुस्दिल लोग जो अपनी हिफाजत करना तो दूर बल्कि उसका विरोध करने से भी डरते है और कहते हैं कि हम शरीफ लोग इस तरह के पंगों में नहीं पड़ते लेकिन क्या हम इस बात को उनकी शराफत कहें या इसको बुस्दिली का नाम दें. मैं तो इसे बुस्दिली के अलावा कुछ नहीं कहूँगा क्यूंकि अगर आप अपनी हिफाजत करने में समर्थ नहीं है तो अपने अप को काम से काम इस काबिल तो बनाएं कि सही-गलत में अंतर करके गलत हो रही बात के खिलाफ आवाज तो उठा सकें. यही बुस्दिली उस शख्स के मन में इस तरह से बस जाती है कि जब कोई परेशानी या अत्याचार होने की उसकी खुद कि बारी आती है तो वो लाचार नजरों से दूसरों का मुख ताकता है लेकिन उसकी मदद करने वाला कोई भी नहीं होता भगवान भी नहीं क्यूंकि भगवान भी उसी की मदद करता है जो अपनी मदद खुद करता है. फिर वो भगवान को कोसता है कि भगवान ने उसके साथ अच्छा नहीं किया. तब उसे इस बात का एहसास होता है कि उसने आज तक किसी गलत काम को होने से रोकने में कभी कोई प्रयत्न नहीं किया और न ही किसी की मदद की शायद इसीलिए आज उसकी मदद किसी ने नहीं की है.

  • शराफत का समय जा चुका है आज का समय शराफत को अपने जेहन से निकालकर हर बात का डट कर मुकाबला करने का है ताकि हर उस इन्सान को जवाब मिल सके जो अपने आप को बहुत चालाक समझता है और आपका फायदा उठाने की कोशिश करता है. इस शरीफ पण को छोड़कर बुलंद हौसलों के साथ अपनी जिन्दगी को जियो ताकि काम से काम ये बुस्दिली और डर पास भी न भटक सके. ये घोर कलयुग है यहाँ शरीफ लोगों के लिए कोई जगह नहीं है. शराफत न तो दो वक़्त की रोटी दे सकती है, न ही तन ढकने को कपडे और न ही सर छुपाने को छत. इन सब जरूरतों के लिए इस झूठी दुनिया को मुह तोड़ जवाब देना होगा और दुनिया के साथ चलना होगा, बहुत बार तो इस दुनिया में राज कर रहे काले मन वाले शरीफों का साथ भी दबा होगा. यही वो सब बातें है जिनको अपनाकर इन्सान अपनी इस घोर कलयुग में अपनी मंजिल को पा सकता है और चालबाजों की चक्की में पिसने से बच सकता है.

  • इस दुनिया को अगर जीतना है तो डर और बुस्दिली को छोड़ना होगा क्यूंकि किसी ने ठीक ही कहा है कि डर के आगे जीत है. जब हम खुद को दुनिया के अनुसार ढाल लेंगे तो दुनिया हमारी मुठ्ठी में होगी. क्यूंकि जैसा हम अन्दर सोचते हैं वैसा ही हमें ब्रह्माण्ड में देखने को मिलता है तभी तो किसी महापुरुष ने कहा है कि " यत पिंडे तत ब्रह्मांडे" यानि कि जैसा तुम्हारे अन्दर है वैसा ही समस्त ब्रह्माण्ड में है.

Naa.... Jaane Kaun Sa Hai Wo Ek Lamha............?

                            <<<<<एक लम्हा एक पल>>>>>

















कैसा है वो एक लम्हा जो मुझे पल पल सताता है,
सोच में रहता हूँ, न जाने यह मेरा दिल क्या चाहता है,
छू लूं मैं भी अब आसमां को, बस यही मंजर अब नजर आता है...........

काश! कि निकल आये अब किसी कौने से रौशनी की किरण,
क्यूँ ये सर बार बार अँधेरे में टकराता है,
न जाने कौन सा है वो लम्हा जो मुझे पल पल सताता है...........

चाहता हूँ कि मंजिल अब आ जाए नज़रों के सामने,
मगर ये काश! भी तो कमबख्त काश ही रह जाता है,
न जाने कब आएगा वो लम्हा जो मुझे पल पल सताता है...........



Tuesday, January 11, 2011

Last Words Of Guru Gobind Singh Ji...........

 



















"बाणी गुरूआं" दी मैं "गुरु" बना चलेया,
तुहानू हसदे देखण लई "सरबंस" लुटा चलेया,
वैरी नाल लड़न लई तुहानू शेर बना चलेया,
तुहानू फ़तेह मिले मैं फ़तेह बुला चलेया.........

                                  वाहेगुरु जी का खालसा श्री वाहेगुरु जी की फ़तेह...........

Saturday, January 1, 2011

Happy New Year-2011

 
 ब्लॉगर के सभी रीडर्स को नए साल की हार्दिक शुभ कामनाएं.
आप सभी का नया साल खुशियों भरा हो और आप दिन दौगनी
रात चौगनी तरक्की करें.
                     
                                                       गोविन्द सलोता

Sunday, December 19, 2010

जमीं से उठाकर नजर जरा देखो यारों...........



























जमीं से उठाकर नजर आसमाँ को देखो यारों,
मंजिल मिल ही जाएगी कोशिश करके तो देखो यारों.

सीधी ऊँगली से घी न निकले अगर तो,
ऊँगली जरा सी टेड़ी करके तो देखो यारों.

जिन्हें किस्मत की दास्तानों से न हो मतलब,
बस अपने आप पर ही हो भरोसा,
कहानी जरा अपनी भी पूछ लिया करो यारों.

कभी खुदा से सवाल करना अकेले में,
कभी खुदा को जवाब देके देखना यारों.

यूँ तो आसमाँ में भी छेद नहीं होता,
पर इक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों.

जानना चाहो अगर क्या खोया क्या पाया,
कभी पीछे मुड़ के देखो यारों.

जमीं से उठाकर नजर आसमाँ को देखो यारों,
जीत मिल ही जाएगी कोशिश करके तो देखो यारों,
जीत मिल ही जाएगी कोशिश करके तो देखो यारों..........

Tuesday, December 14, 2010

मासूम की पुकार...........



























सोचती हूँ कि आज आज़ाद हूँ मैं,
लेकिन फिर भी डर-डर कर आगे बढ़ पाती हूँ मैं.
खौफ में घर से बाहर निकलना,
बस यूँ ही सहमी हुई सी रह पाती हूँ मैं.
कहने को तो मैं भी अब आज़ाद हूँ लेकिन,
न जाने क्यूँ, आज भी, रौशनी में,
अपनी ही परछाई से डर जाती हूँ मैं.

काली भयावह रातों में भी अब मुझे,
बस यही डर सताता है कि,
क्या होगा कल फिर से इसी गरीबी में,
बस यही सोचकर रात भर आँखों से नीर बहाती हूँ मैं,
हर पल साहूकारों की मार और फटकार से,
अखियों को जलमग्न कर जाती हूँ मैं,
कहने को तो इस देश में आज़ाद हूँ मैं भी,
न जाने क्यूँ, आज भी, रौशनी में,
अपनी ही परछाई से डर जाती हूँ मैं.

स्कूल जाते, पानी भरने या काम पर जाते,
यही ख्याल आता है अब तो,
क्या ले जायेगा मुझे भी उठाकर बीच रास्ते से कोई,
डर कर फिर धीरे-धीरे चल पाती हूँ मैं,
डर कर भी जल्दी से आगे बढ़ना चाहा,
लेकिन फिर भी बढ़ नहीं पाती हूँ मैं,
सहेलियां कहती है कि आज़ाद हैं हम भी,
लेकिन न जाने क्यूँ, आज भी, रौशनी में,
अपनी ही परछाई से डर जाती हूँ मैं.

ब्लात्कार और दरिन्दगी की हदें,
ख़बरों में रोज़ पढ़ लेती हूँ मैं,
कहाँ से आये फिर उम्मीद की किरण,
इसी बात को फिर दिल में दबा लेती हूँ मैं,
बेटी, बहन, पत्नी और माँ,
सब रिश्तों को निभाती हूँ मैं,
अपने मन कि उलझन को फिर भी,
किसी को न कह पाती हूँ मैं,
अम्मू कहती है कि आज़ाद है हम,
लेकिन न जाने क्यूँ, आज भी, रौशनी में,
अपनी ही परछाई से डर जाती हूँ मैं.

                                          (गोविन्द सलोता)        

Monday, December 6, 2010

लकीर ख्वाहिशों की..........

तुम्हारे हाथों में मेरी कोई लकीर है तो बोलो,
यूँ तो ख्वाहिशों का कोई घर नहीं होता.

ये बेहाल ज़िन्दगी मुझे ले आई कहाँ,
कि बिन तेरे अब पूरा कोई सफ़र नहीं होता.

बुझे हुए चिरागों का आज क्या और कल क्या,
हर रोज़ चलने वालों का कोई मंज़र नहीं होता.

मिला तो मैं भी अपनी जिंदगी में कई लोगों से,
सिर्फ मिलने से तो कोई दिल के करीब नहीं होता.

मैं सोच सकता हूँ तुम्हारे बारे में पर सोचने का क्या,
जब तक कोई हाथ न पकडे हमसफ़र नहीं होता.

इसीलिए पूछा कि तुम्हारे हाथों में मेरी कोई लकीर है तो बोलो,
यूँ तो ख्वाहिशों का कोई घर नहीं होता.

Call me when u feel alone...........

If one day you feel like crying...
Call me.
I don't promise that I will make you laugh,
But I can cry with you.

If one day you want to run away--
Don't be afraid to call me.
I don't promise to ask you to stop...
But I can run with you.

If one day you don't want to listen to anyone...
Call me.
I promise to be there for you.
And I promise to be very quiet.

But if one day you call...
And there is no answer...
Come fast to see me.
Perhaps I need you.

yes i miss u everysecond ..
and i really mean this.....

काश कभी हो ऐसा........



काश कभी हो ऐसा........
मैं बैठा देखता रहूँ तुझे कि जितने जिन्दगी में मेरे पल न हो,
बैठी रहो तुम मेरे कंधे पर सर रख के ऐसे कि शाम के हो जाने की हलचल न हो,
छिप जायें सूरज की वो निराली घटा कि पंछियों की भी न चिलपिल हो,
सुला दूं तुम्हें मैं वैसे ही बैठे-बैठे और चांदनी की बस हलकी सी झिलमिल हो ||

काश कभी हो ऐसा.......
माँ झट्क कर झाड दे धूप की चादर,
मैं उस चादर में फिर सिमट कर तेरे सपनों में खो जाऊं,
माँ उठती रहें मुझे बार-बार पर मैं तब न उठ पाऊं,
उठू लेकिन जब भी मैं तुम हो पास मेरे और मैं फिर तुझमें सिमट जाऊं ||

काश कभी हो ऐसा........
हो आसमान में बादलों की घटा कुछ ऐसे,
सारी दुनिया तुझे उसमें नजर आये,
लाकर डाल दूं सारी खुशियाँ तेरे दामन में ऐसे,
उन्हें समेटने में तेरी उम्र निकल जाए ||

काश कभी हो ऐसा........
जब मैं गुज़रू किसी प्रलय से तेरे साथ,
तो जल जाऐं मेरे वस्त्र मेरा शरीर,
लेकिन एक तारा बचा रह जाए मेरी बाहों में,
तब जन्नत नसीब हो जाये मुझे जब मिल जाये ऐसा दिन तेरी बाहों में ||

Tuesday, November 30, 2010

जिन्दगी कैसे जियें...........












                                 

                                                          
आजकल हर शख्स हमें जिन्दगी कैसे जियें ये सिखा जाता है,
उन्हें क्या समझाएं कि हमारी आँखों में बस कुछ ख्वाब अधूरे हैं,
नहीं तो हमसे बेहतर जिन्दगी भला कौन जी सकता है.